Saturday, November 23, 2013

योगिनी दशा

योगिनी आठ होती हैं। योगिनी महादशा का एक सम्पूर्ण चक्र ३६ वर्ष में पूरा हो जाता है। इसके बाद इसकी पुनरावृत्ति होती है। केतु को छोड़कर बाकी सभी ग्रह एक-एक योगिनी के स्वामी हैं। योगिनी दशा की कुल अवधि ३६ वर्ष है जबकि विंशोत्तरी में दशा की अवधि १२० वर्ष की है. अन्य शब्दों में यदि मनुष्य की आयु १२० वर्ष मानें तो योगिनी दशा के तीन चक्र पूरे हो जाएंगे और चौथे चक्र की दशाएं जीवन के अंत समय में चल रही होंगी।

प्रत्येक योगिनी दशा के जन्म नक्षत्र तथा स्वामी निश्चित हैं, जो निम्न तालिका से स्पष्ट हो जाएंगे :-


भ्रामरी दशा अश्विनी नक्षत्र में होती है। इसके बाद सभी नक्षत्रों में एक-एक योगिनी दशा होती है। अतः ८-८ जन्म नक्षत्रों के बाद पुनः जन्म नक्षत्रों की आवृत्ति उसी दशा में होती है, जैसे भ्रामरी क्रमांक १, ९, १७ व २५ में प्रथम ३  (मंगला, पिंगला तथा धन्या)  एवं अंतिम २ (सिद्धा व संकटा ) प्रत्येक दशा ३-३ नक्षत्रों में होती है, जबकि बीच की ३ (भ्रामरी, भद्रा तथा उल्का दशाएं ४-४ नक्षत्रों में होती हैं। 

योगिनी दशाओं के नाम और फल निम्न प्रकार हैं :-
  1. मंगला (चंद्रमा) अवधि १ वर्ष : इस दशा में मन पवित्र होता है तथा धार्मिक कार्यों में सहज रूचि होती है. देव पूजन, सत्संग, धर्म चर्चा व पुराण कथाओं में सम्मिलित होने से सुख, वैभव और सम्पन्नता बढ़ती है. इस अवधि में सुख, सुविधा, यश एवं रत्नाभूषण की प्राप्ति होती है. घर परिवार में मंगल उत्सव होते हैं. विद्या, विनय, वैभव के साथ मित्र व संबंधियों का स्नेह व सहयोग भी मन की प्रसन्नता को बढ़ाता है. अन्य विद्वानों के अनुसार मंगल, मांगल्य, मंगला का अर्थ शुभ श्रेष्ठ व कल्याणकारी है. निष्ठावान पत्नी, सुशील, आज्ञाकारी और भाग्यशाली संतान, धन वैभव, शुभता, पूजा अर्चना प्रार्थना द्वारा अरिष्ट निवारण, स्वस्थ, श्रेष्ठ व कल्याणकारी आयोजन, पद, प्रतिष्ठा, प्रताप, पराक्रम व विशेष सफलता, मंगला की दशा या भुक्ति में सहज मिलती है. 

  2. पिंगला (सूर्य) अवधि २ वर्ष : विद्वानों ने सूर्य को क्रूर ग्रह माना है. अतः इस दशा में मनोव्यथा, देह कष्ट, हृदय रोग तथा मिथ्या मनोरथ से उपजा दुःख अथवा अनैतिक आचरण, या कुसंगति के कारण धन व यश की हानि तो कभी पित्त रोग, ज्वर या रक्त विकार से कष्ट होता है. इस अवधि में संतान, सेवक तथा संबंधी भी कष्ट पाते हैं जिस कारण मन दुखी रहता है. कुछ विद्वान पिंगला का संबंध अग्नि-दुर्घटना या उष्णता, वरिष्ठ जन के सहयोग से कार्य सिद्धि, उल्लू जैसी सजगता, कुबेर का खजाना, पर्यटन प्रेम, व्यापार कुशलता, पीला या सुनहरी रंग जो प्रसन्नता का वातावरण बनाए, कष्ट-क्लेश से मुक्ति, किसी प्रभावशाली महिला का सहयोग व समर्थन तथा शुभ कृत्य, उदारता, परोपकार और अधिकार या सत्ता सुख से जोड़ते हैं. ध्यान रहे पिंगला एक सरल हृदया और धार्मिक विचार वाली राजनर्तकी थी जो अपने तोते को राम नाम सिखाते हुए मृत्यु प्राप्त कर मुक्त हो गई. 

  3. धान्या (गुरु) अवधि ३ वर्ष : धान्या दशा का संबंध गुरु, उन्नति, प्रगति, विकास, धन-मान की वृद्धि तथा सुख सम्पन्नता से माना जाता है. इस अवधि में विद्या, शिक्षा और योग्यता बढ़ती है तथा शत्रु नष्ट होते हैं. गुरु धर्म और अध्यात्म का कारक होने से, धान्या दशा में, जातक देवार्चन करता है तथा उपासना व तीर्थाटन से कार्यसिद्धि व सुख पाता है तो कभी राजा के अनुग्रह से धन, मान और पद प्रतिष्ठा मिलती है. अन्य विद्वान धान्या को धन धान्य की वृद्धि करने वाली दशा मानते हैं. ये दशा स्वास्थ्य, सम्मान, सद्गुण, स्नेह व परस्पर सहयोग को बढ़ाकर सुखी बनाती है. यों तो प्राचीन ग्रंथों में धान्या को मधुर, शीतल, स्वादिष्ट, स्वास्थयवर्धक तथा उत्तम भोजन माना है किन्तु मतान्तर में कहीं धान्या का अर्थ कसैला, कड़वा अथवा प्यास बढ़ाने वाला, तिक्त तथा मूत्र रोग का कारक भी माना गया है. 

  4. भ्रामरी (मंगल) अवधि ४ वर्ष : यह दशा पर्यटन, भ्रमण तो कभी घर परिवार से दूर निरर्थक भटकाव दिया करती है. मंगल अग्नि तत्त्व, क्रूर ग्रह होने से कभी, पदभंग, मानहानि या स्थानांतरण संबंधी क्लेश देता है. कोई जातक साहस, पराक्रम तथा परिश्रम से, अपनी प्रतिष्ठा बचाने या सफलता और सम्मान पाने से सुखी होता है. अन्य विद्वानों के अनुसार भ्रामरी दशा घर परिवार के सुख में तो कमी करती है किन्तु परिश्रम व पर्यटन द्वारा जातक, राजा सरीखे धनी मानी व्यक्तियों की कृपा से लाभ पता है. यदि जातक मानसिक संतुलन और धैर्य बनाए रखे तो जैसे देवी ने भ्रमरों द्वारा दैत्य समुदाय का नाश किया था, वैसे ही सारी बुराइयां इस दशा में स्वतः मिट जाती हैं.   

  5. भद्रिका (बुध) अवधि ५ वर्ष : यह दशा परिवार में स्नेह, सौहार्द तथा सहयोग बढ़ाती है. नए व लाभकार मैत्री संबंध बनते हैं. जातक संत, महात्मा, धनी मानी तथा राजा या उच्च अधिकारियों की कृपा से धन, मान व सुख पता है. घर में मंगल समारोह का आयोजन होता है. व्यापारिक दक्षता तथा सुख सुविधा की वृद्धि होती है. मित्रों के साथ आमोद-प्रमोद में समय बीतता है. भद्र या भद्रिका का अर्थ शुभ और कल्यानप्रद होता है. जातक मानो शुभता का आगार बन जाता है. सिद्ध महात्मा और धनी मानी व्यक्तियों के आशीर्वाद से उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं. वह स्वस्थ, गुणी, उदार, परोपकारी तथा दूसरों की सेवा सहायता को तत्पर रहने से स्नेह, सम्मान व प्रतिष्ठा पाता है.  

  6. उल्का (शनि) अवधि ६ वर्ष : किसी अग्नि पिंड का आकाश से गिरना उल्कापात कहलाता है. इसकी तुलना निर्धारित लक्ष्य पर मार करने वाले संहारक प्रक्षेपास्त्र से की जा सकती है. यह दशा धन, यश तथा वाहन सुख को नष्ट करती है. संतान तथा सेवक से मानसिक कष्ट क्लेश मिलता है. कभी राजा के कोप से धन और प्रतिष्ठा की हानि होती है. परिवार में मतभेद या वैर विरोध बढ़ने से, घर मानो युद्ध भूमि अथवा शत्रु दुर्ग सरीखा जान पढ़ता है. हृदय, उदर, दांत, कान या पाँव की पीड़ा भी दुःख दिया करती है. अन्य विद्वानों के मत से उल्का दशा, नगर या बस्ती में उपद्रव या उत्पाद (दंगों) से कष्ट देती है. कभी अग्नि या दुर्घटना का भय होता है. शायद ये अवधि व्यक्ति, परिवार, समाज तथा देश (स्थान) के लिए अशुभ और अनिष्टप्रद है. कोई जातक ज्योतिष या व्याकरण के क्षेत्र में उत्कृष्ट सफलता भी पाता है. 

  7. सिद्ध (शुक्र) अवधि ७ वर्ष : इस दशा विद्वानों ने धन, विद्या, सफलता व संपन्नता देने वाली दशा माना है.  जातक सुख, सौभाग्य, सम्मान तथा पद-प्रतिष्ठा व यश पाता है. उसे धन, वस्त्र, रत्नाभूषण तथा वाहन सुख की प्राप्ति होती है. कभी बच्चों का विवाह होने से सुख व संतोष मिलता है. अन्य विद्वानों के अनुसार इस दशा में जातक की सभी इच्छाएं पूरी होती हैं. उसे मनोवांछित लाभ और सफलता मिलती हैं. वह उच्च पद, अधिकार व सत्ता सुख पाता है. कभी सिद्ध महात्माओं की कृपा से, दैवीय गुण और शक्तियों का विकास होता है. वह निर्णय कुशल, सभी के झगड़े निपटाने वाला तथा चमत्कारिक व्यक्तित्व का धनी व प्रतिष्टित व्यक्ति होता है. 

  8. संकटा (राहू) अवधि ८ वर्ष : यह दशा धन, मान, यश तथा पद प्रतिष्ठा की हानि करती है. कभी चोरी, अग्निभय या उपद्रव के कारण धन सम्पदा का नाश होता है. मिथ्या मनोरथ, देह की दुर्बलता, परिवार से वियोग या स्वर्ण की हानि भी क्लेश देती है. यदि आयुष्य स्माप्त प्रायः हो तो जातक की मृत्यु होना भी संभव है. मतान्तर से जातक मनमानी करने की प्रवृत्ति, हठी स्वभाव, कुसंगति व स्वार्थपूर्ण आचरण के कारण अपनी परेशानी स्वयं ही बढ़ाता है. लोभ और स्वार्थ के वशीभूत होकर वह नीति विरुद्ध कार्य कर अपयश और कलंक का भागी बनता है. कभी संकीर्ण व संकुचित मनोवृति भी मनोव्यथा का कारण बनती है. बनारस की संकटा देवी की उपासना करने से संकट मिटते हैं तथा सुख की प्राप्ति होती है. 
ब्लॉग में  सम्मिलित सभी लेख किसी न किसी महानुभव की वर्षों  की तपस्या का फल है.  इस ब्लॉग में इनका पुनः प्रकाशन  ज्योतिष शास्त्र में रूचि रखने वाले मित्रों के कल्याणार्थ किया जा रहा  है. 

Friday, November 22, 2013

ग्रहों के विषय

सभी ग्रह अपने कारकत्व के अनुरूप अपनी दशा/अंतर्दशा (भुक्ति) में जातक पर प्रभाव डालते हैं :-
  1. सूर्य आत्मा, पिता, पद, प्रतिष्ठा, स्वास्थय व शक्ति (शारीरिक व आत्म बल) के साथ धन व लक्ष्मी का कारक है. 

  2. चंद्रमा से मन, बुद्धि, राजकृपा तथा धनसंपदा का विचार किया जाता है. 

  3. मंगल से पराक्रम, परिश्रम, संघर्ष शक्ति, अनुज, भूमि, शत्रु, रोग व चचेरे भाई का ज्ञान होता है. मंगल बली होने पर जातक अपने पराक्रम से सुख व सफलता पता है. 

  4. बुध विद्या, बुद्धि, बंधू, माया, मित्र, मनोरंजन, वाणी, कार्यक्षमता का कारक है. अतः शुभ होने पर अपनी दशा अंतर्दशा में बुध मौज मस्ती कराएगा मित्र मण्डली का सुख देगा.

  5. गुरु ज्ञान, प्रजा, धर्म, धन, संतान, शरीर की पुष्टि, मंत्रोपासना का कारक है. गुरु अपनी अंतर्दशा में प्रायः स्नेह, सहयोग, सुख व समृद्धि देता है. जातक की धर्म में रूचि होती है. 

  6. शुक्र वस्त्राभूषण, दांपत्य सुख, पत्नी से सम्बन्ध, सुख वैभव तथा वहाँ का कारक होता है. शुभ शुक्र अपनी दशा में सुख, समृद्धि व दांपत्य सुख देता है. 

  7. शनि आयु, जीवन, जीविका (नौकरी), दस-दासी या दुःख देता है. मृत्यु व विपत्ति का विचार भी शनि से होता है. कालपुरुष का लग्न, शनि की नीच राशि है. अतः इसे काल पुरुष का दुःख माना गया है. बहुधा शनि विलम्ब या बाधा देता है. 

  8. राहू से दादा का विचार किया जाता है. तीसरे भाव अथवा मिथुन/वृष राशि का उच्चस्थ राहू साहस पराक्रम बढ़ाता है. 

  9. केतु से नाना का विचार किया जाता है. द्वादश भाव का केतु मोक्षदायी व मुक्ति कारक माना गया है. केतु अपनी दशा/भुक्ति में प्रायः अनिष्ट व अशुभ से छुटकारा दिलाया करता है.