Thursday, March 27, 2014

भाव परिचय

जन्मकुण्डली में बनने वाले कोष्ठकों को भाव कहा जाता है। कुण्डली में बारह कोष्ठक अर्थात् भाव होते हैं। इन कोष्ठकों को भाव, भवन, स्थान तो कहते ही हैं, साथ ही इनसे विचार करने वाले विषयों के नाम पर भी इनका नामकरण कर दिया जाता है। जैसे प्रथम भाव को लग्न, तनु, उदय या जन्म, द्वित्तीय भाव को धन, कुटुम्ब या कोश, तीसरे भाव को सहज, पराक्रम आदि भी कहते हैं। 

भाव के अधिपति ग्रह को भावेश कहते हैं। जब हम आयेश कहेंगे तो ग्यारहवें स्थान पर जो राशि है उसका स्वामी आयेश होगा। मान लें कि ग्यारहवें स्थान पर सिंह राशि का अधिपति सूर्य है तो यहाँ आयेश का अर्थ सूर्य होगा। 

भावों के सामूहिक नाम भी हैं-जैसे केन्द्र, पणफर, आपोक्लिम और त्रिकोण आदि। प्रथम, चतुर्थ, सप्तम एवं दशम भाव को 'केन्द्र' कहा जाता है। दूसरे, पांचवें, आठवें और ग्यारहवें स्थान को 'पणफर' कहते हैं।  तीसरे, छठे, नवें और बारहवें भाव को 'आपोक्लिम' कहते हैं तथा प्रथम, पंचम और नवम भाव को 'त्रिकोण' कहते हैं। तीसरे, छठे और दसवें भाव को 'उपचय', छठे, आठवें, व बारहवें भाव को 'त्रिक', दूसरे व आठवें भाव को 'मारक' तथा तीसरे, छठे व ग्यारहवें भाव को 'त्रिषडाय' कहते हैं। 

भाव स्पष्ट करने की जो प्रचलित रीति है उसके अनुसार लग्न से दशम भाव को स्पष्ट किया जाता है। दशम भाव में छः राशि जोड़ने से चतुर्थ भाव स्पष्ट हो जाता है। चतुर्थ में से लग्न को घटा कर उसे छः से भाग देने पर जो षष्ठांश आये, उसे लग्न में जोड़ने पर प्रथम भाव को सन्धि, सन्धि में पुनः षष्ठांश जोड़ने पर द्वित्तीय भाव, द्वितीय भाव में षष्ठांश x २ को जोड़ने से तीसरा भाव तथा तथा पांचवां और छठा भाव स्पष्ट करने के लिए तीस अंशों में से षष्ठांश को घटाकर जो शेष बचता है, उसे जोड़ते हैं। भाव स्पष्ट करने की यही रीति आज भी प्रचलित है। इस रीति से कोई भी भाव समान अंशों (३० अंश) में नहीं आता, जबकि प्रत्येक भाव को समान अंश का होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि कोई भी ग्रह, जो कुंडली में चौथे भाव का अधिपति होता है, भाव स्पष्ट करने में वह पांचवे या तीसरे भाव का अधिपति बन जाता है।

इसलिए आज भाव स्पष्ट करने की जो परिपाटी चल रही है, वह ठीक नहीं है। भारत में इस रीति का प्रचार अरब और मिस्र आदि देशों से हुआ। फलित विकास के लेखक स्वर्गीय पं. रामचरन ओझा ने लिखा है कि भाव साधन की जो पद्धति  आज भारत में प्रचलित है वह मुसलमानी मतानुसार है, ऋषिप्रणीत नहीं है। 'सिद्धान्त तत्त्व विवेक' में इसका पूर्णतया खण्डन किया गया है। जैमिनी सूत्र में राशियों की दशा दी गयी है। भाव स्पष्ट की इस प्रणाली को मनाने से किसी राशि की दशा दो बार आयेगी तो किसी के एक बार भी नहीं आयेगी। 'सर्वे भावा लग्नांशसमाः' अर्थात् सभी भाव लग्न के अंशों के समान हों, ऐसा नहीं हो सकेगा। सभी शास्त्रकारों ने लग्न के बाईसवें द्रेष्काण को मारक कहा है, पर यह तभी संभव हो सकता है जब अष्टम भाव लग्न के अंशादि के बराबर हो। आचार्य वराहमिहिर ने भी उपर्युक्त बात कही है। इससे यह सिद्ध होता है कि भाव स्पष्ट करने की यह रीति सह शुद्ध नहीं है। आर्ष वचनों के अनुसार लग्न स्पष्ट में एक-एक राशि जोड़ने से भाव स्पष्ट (द्वादश भाव) हो जाते हैं। लग्न स्पष्ट के बराबर सभी राशियों के भाव मध्य मानने की परिपाटी रही थी।  भाव मध्य से पन्द्रह अंश पूर्व भाव प्रारंभ तथा भाव मध्य से पन्द्रह अंश पश्चात भाव समाप्त होता है।

जब किसी भाव में कोई ग्रह होता है तो पूर्ण फल प्रदान करता है। जैसे वृषभ लग्न के २० अंश (१/२०) उदित हुए तो मिथुन के २० अंश पर ग्रह द्वितीय और कर्क के २० अंश पर ग्रह तृतीय भाव का फल करेगा। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए। 

Saturday, March 8, 2014

ग्रहों की दृष्टि

ज्योतिष के आधार पर भूमि के बारह भाग और उनसे ग्रहों का सम्बन्ध प्रस्तुत किया गया है। हर एक भाग किसी न किसी दूसरे भाग को देखता या उस के द्वारा देखा जाता अर्थात् कुंडली के किसी भी घर में स्थापित ग्रह की दृष्टि कुंडली के दूसरे किसी न किसी घर में स्थापित ग्रह को देखती है या किसी न किसी दूसरे घर के ग्रहों द्वारा देखे जाते हैं। इसी को दृष्टि कहते हैं जो पूर्ण, आधी, चौथाई दृष्टि, मेल मिलाप, टक्कर कहलाती है। 

पूर्ण दृष्टि

पूर्ण दृष्टि का अर्थ पूर्ण प्रभाव। कुंडली के कुल बारह घर या खाने हैं। पहले छह स्थानों का दृष्टि द्वारा बाद के छह स्थानों से सम्बन्ध है। उन में से पहला घर सातवें घर को पूर्ण दृष्टि से देखता है अर्थात् पहले घर के ग्रह अपना पूर्ण प्रभाव सातवें घर के ग्रहों पर करते हैं। इसी प्रकार तीसरा नौवें को, चौथा दसवें को, पांचवां ग्यारहवें को, छठा बारहवें को देखता है। जिस से यह भी सिद्ध होता है कि पहला सातवें को देखता है परन्तु सातवां पहले को नहीं देखता। तीसरा नौवें को देखता है पर नौंवा तीसरे को नहीं देखता। चौथा दसवें को देखता है पर दसवां चौथे को नहीं। पांचवां ग्यारहवें को देखता है पर ग्यारहवां पांचवें को नहीं क्योंकि बैटरी की रोशनी आगे जाया करती है आगे से पीछे नहीं आया करती है। किसी भी घर की दृष्टि अपने घर में ग्रह के प्रभाव को इस प्रकार से ले जाती है जैसे सिनेमा के परदे पर पड़ने वाली रोशनी अपने साथ चित्र को ले जाती है। बिना ग्रह के साथ घर की दृष्टि दूसरे ग्रह  में ऐसे जायेगी जैसे बिना चित्रों के सिनेमा कि रोशनी परदे पर। 

आधी और चौथाई दृष्टि 

तीसरे घर का ग्रह ग्यारहवें घर के ग्रह को आधी दृष्टि से देखता है। परन्तु ग्यारहवें घर का ग्रह तीसरे घर के ग्रह को नहीं देखता है। पांचवें घर का ग्रह नौवें घर के ग्रह को आधी दृष्टि से देखता है परन्तु नौवें घर का ग्रह पांचवें घर के ग्रह को नहीं देखता है। यानि कि तीसरे और पांचवें घर के ग्रह क्रमशः  ग्यारहवें और नौवें घर के ग्रहों को अपनी आधी शक्ति से प्रभावित करेंगे। परन्तु ग्यारहवें और नौवें घर का प्रभाव क्रमशः तीसरे और पांचवें घर के ग्रहों पर नहीं होगा।

टक्कर 

कुंडली के किसी न किसी भी घर से हर ग्रह अपने से आठवें घर के ग्रह को टक्कर मार कर हानि पहुंचायेगा। वह उसका मित्र हो या शत्रु ग्रह हो इस बात का ध्यान न रखेगा जैसे पहला घर आठवें को टक्कर मारेगा और दसवां घर पांचवें घर को टक्कर मारेगा। इस प्रकार कुंडली के बारह ही घरों के ग्रह अपने घर से आठवें घर में स्थापित ग्रहों की टक्कर मार कर उसे हानि पहुंचायेगे।

आपस की शत्रुता 

अपने से दसवें नम्बर पर पड़ने वाले ग्रह आपस में शत्रु हो कर एक दूसरे घर के संबंधित रिश्तेदारों और वस्तुओं के उल्ट प्रभाव देंगे।

बृहस्पति, मंगल और शनि की दृष्टि 

सभी ग्रह अपने स्थान से सातवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं, लेकिन मंगल अपने स्थान से चौथे और आठवें स्थान को, गुरु अपने स्थान से पांचवे और नवें स्थान को व शनि अपने स्थान से तीसरे और दसवें स्थान को भी पूर्ण दृष्टि से देखता है।

शनि का प्रतीक सांप भी होता है जब वह भूमि पर रेंग कर चलता है तो आगे की और देखता है परन्तु जब वह फन उठाकर खड़ा कर लेता है तो उसकी आँखें आगे देखने कि बजाय पीछे की और देखती हैं। सांप फन उसी समय उठाता है जब उसको अपने पास शत्रु का आभास हो। अतः ज्योतिष के आधार पर भी जब शनि शत्रुता की नीयत और दृष्टि से देखे तो वह उल्टी दृष्टि से अपने पीछे बैठे ग्रह को भी हानि पहुंचा सकता है, छठे से दूसरे घर के ग्रहों को।

कुछ आचार्यों ने राहु-केतु की दृष्टि को भी मान्यता प्रदान की है, लेकिन महषि॔ पराशर ने इनकी कोई दृष्टि नहीं मानी है। अन्य आचार्यों के मत से राहु अपने स्थान से पांचवे, सातवें और नवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है। ऐसी ही केतु की दृष्टि भी होती है।

सूर्य और मंगल की दृष्टि उर्ध्व है, बुध और शुक्र की तिरछी, चन्द्रमा और गुरु की बराबर (सम) तथा राहु और शनि की दृष्टि नीची है। 

Friday, March 7, 2014

ग्रहों के बल और स्वरूप

ग्रहों के - काल बल, चेष्टा बल, नैसर्गिक बल, दिग्बल, दृग्बल और स्थान बल - छह प्रकार के बल माने जाते हैं।
  1. कालबल - नतोन्नत बल,  पक्ष बल, अहोरात्र त्रिभाग बल व् वषैशादि बल इन चार बालों का योग ग्रह का 'काल बल' होता है।
  2. चेष्टा बल -  अयन बल और माध्यम चेष्टा बल का योग ग्रह का 'चेष्टा बल' होता है। 
  3. नैसर्गिक बल - शनि, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, चंद्रमा और सूर्य का 'नैसर्गिक बल' क्रमशः एकोत्तर अंशों को सात पर भाग देने से लब्धि तुल्य आता है। 
  4. दिग्बल - शनि में से लग्न को, सूर्य और मंगल में से चतुर्थ को, चन्द्रमा और शुक्र में से दशम को, बुध और गुरु में से सप्तम को घटाकर शेष को छह राशि पर भाग देने से ग्रहों का 'दिग्बल' निकाला जाता है।
  5. दृग्बल -  द्रष्टा ग्रह को दृश्य ग्रह में से घटाकर शेष को दृष्टि ध्रुवांक चक्र में दिये गये अंक से गुणा कर ३० का भाग देने से ग्रहों का 'दृग्बल' आता है। 
  6. स्थान बल - उच्च बल, युग्मायुग्म बल, सप्त वर्णेक्य बल, केन्द्र बल और द्रेष्काण बल का योग ग्रह का 'स्थान बल' कहलाता है। 
यदि ग्रह सूर्य के साथ हो तो 'अस्त', मंगल आदि पुरुष ग्रह चन्द्रमा के साथ हो तो 'समागम' और मंगल के साथ अन्य ग्रह हो तो 'युद्ध' कहलाता है। उत्तरायण में सूर्य और चन्द्रमा दोनों बली होतें है। शेष ग्रह समागम और वक्र गति होने से बलि होते हैं।

सूर्य के नेत्र शहद की भांति पिंगल वर्ण के हैं। इसके शरीर की लम्बाई -चौड़ाई बराबर है। यह अधिक पित्त और थोड़े बालों वाला है तथा मृत्युलोक का अधिपति है। जन्म के समय में इसकी स्थिति के अनुरूप जातक की देह, पिता, पराक्रम, आसक्ति और धन का विचार किया जाता है।

चन्द्रमा सुंदर नेत्र, गोल चेहरा, अधिक वाट और कफ वाला, मेधावी, बुद्धिमान् तथा मीठे वचन कहने वाला है। मन, बुद्धि, व्यावहारिक ज्ञान, राजा की प्रसन्नता, माता और सुख का विचार चन्द्रमा की जन्मकालिक स्थिति से किया जाता है।

मंगल पतली कमर, चंचल स्वभाव, दानशील, शूर, युवावस्था से संपन्न, क्रूर दृष्टि वाला और पित्तप्रधान है। इसकी जन्मकालिक स्थिति से शौर्य, रोग, गुण, छोटे भाई-बहन, भूमि, शत्रु  आदि का विचार किया जाता है।

बुध द्वि-अर्थी (जिन शब्दों के दो अर्थ हों) शब्द बोलने वाला, तीनों प्रकृति (वात-पित्त-कफ़ ) प्रधान गुण वाला व हंसी-मज़ाक वाला ग्रह है। इस की जन्मकालिक स्थिति के अनुसार विद्या, विवेक, बंधु, मामा, वाक् शक्ति, मित्र आदि का विचार किया जाता है।

बृहस्पति पीले नेत्र एवं पीले बालों वाला, दीर्घ और स्थूल देहधारी, श्रेष्ठ बुद्धि एवं कफ़प्रधान प्रकृति वाला है। इसकी जन्मकालिक स्थिति से शरीर-यष्टि, सुख, पुत्र, बुद्धि, धन एवं धार्मिकता का ज्ञान किया जाता है।

शुक्र देखने में सुंदर, सर्वदा सुखी, काले सघन केश, सुंदर नेत्र और वात-कफ़प्रधान प्रकृति वाला है। स्त्री-सुख, भूषणादि, वाहनसुख, कामवासना, व्यापार आदि का विचार इसकी जन्मकालिक स्थिति से किया जाता है।

शनि पतले एवं भारी शरीर, बड़े दांत, रूखे और कड़े केश, आलसी, कपिल-वर्णी नेत्रों तथा वातप्रधान प्रकृति वाला है। इसकी स्थिति से जातक की आयु, जीविका, मृत्यु का कारण, नौकर के सुख-दुःख आदि का विचार किया जाता है।

राहु से पितामह और केतु से मातामह का विचार किया जाता है।

शनि, सूर्य, चन्द्रमा , बुध, शुक्र, गुरु और मंगल ग्रहों को क्रमशः स्नायु, अस्थि, रक्त, त्वचा, वीर्य, वसा, मज्जा आदि का कारक होने से इनके स्वरूप आदि के द्वारा जातक का स्वरूप विचारने में उपयोग होता है। जन्म के समय जातक का जो ग्रह निर्बल होगा उस ग्रह की धातु निर्बल होगी और उसी के समान सम्बन्धित अंग भी पीड़ित होगा। प्रश्नकाल से रोग के कारण आदि का विचार भी किया जाता है।

ग्रहों के लोक 

पूर्वजन्म में जातक किस लोक में था और मृत्यु के पश्चात् वह कहाँ जायेगा, इस विचार के लिए ग्रहों के लोकों का उपयोग होता है।

स्वर्ग का अधिपति गुरु, पितृलोक के शुक्र और चंद्रमा, पाताललोक का बुध, मृत्युलोक के मंगल और सूर्य तथा नरक का अधिपति शनि को माना गया है। 

Thursday, March 6, 2014

ग्रह

ग्रहों का अंग-विन्यास 

जिस प्रकार द्वादश राशियां कालपुरुष का अंग मानी गई हैं अर्थात् कालपुरुष के शरीर में राशियों का विन्यास किया गया है, वैसे ही ग्रहों का विन्यास भी किया जाता है। प्रश्नकाल, गोचर अथवा जन्म-समय में जब ग्रह प्रतिकूल फलदाता होता है तो वह कालपुरुष के उसी अंग में अपने अशुभ फल के कारण पीड़ा पहुंचाता है।

कालपुरुष के सिर और मुख पर ग्रहपति सूर्य का, हृदय और कंठ पर चंद्रमा का, पेट और पीठ पर मंगल का, हाथों और पांवो पर बुध का,  बस्ति  पर गुरु का, गुह्य स्थान पर शुक्र का तथा जाँघों पर शनि का अधिकार होता है। 

सूर्य कालपुरुष की आत्मा और चंद्रमा मन है। मंगल बल है और बुध वाणी है। बृहस्पति सुख और ज्ञान है। शुक्र कामवासना है। शनि दुःख है। ज्योतिष में सूर्य-चन्द्र को राजा, गुरु-शुक्र को मंत्री , मंगल को सेनापति, बुध को युवराज और शनि को भृत्य कहा गया है। 

वर्ण 

सूर्य लाल-श्याम मिले-जुले रंग का, चंद्रमा सफ़ेद रंग का, मंगल लाल रंग का, बुध दूब  की भांति हरे रंग का,  बृहस्पति गौर-पीत रंग का, शुक्र श्वेत रंग का, शनि काले रंग का, राहु नीले रंग का तथा केतु विचित्र रंग का है। 

उपरोक्त कथन जातक के आत्मा व मन आदि  के बारे में पता देता है। यदि ग्रहों के कारक बलवान होंगे तो ग्रह भी पुष्ट होंगे और यदि कारक निर्बल अवस्था में होंगे तो ग्रह भी निर्बल होंगे। वर्ण-सम्बन्धी प्रश्न में नष्ट द्रव्य, चोर के रंग-रूप तथा कुंडली में जातक के रंग-रूप आदि का पता ग्रह के रंग से चलता है। 

ग्रहों की दिशा 

सूर्य पूर्व का, शनि पश्चिम का, बुध उत्तर का, मंगल दक्षिण का, शुक्र अग्नि-कोण का, राहु नैऋत्य का, चंद्रमा वायव्य का और गुरु ईशान दिशा का स्वामी है।

सजल-निर्जल संज्ञा 

चंद्रमा और शुक्र सजल हैं।  शनि, सूर्य और मंगल निर्जल (शुष्क) हैं। बुध और गुरु सजल राशि में रहने पर सजल और निर्जल राशि में रहने पर निर्जल माने जाते हैं।

जातक के शरीर का विचार करने के लिए सजल आदि संज्ञाओं का उपयोग होता है। ग्रह  के सजल होने से शरीर स्थूल होगा तथा ग्रह के शुष्क होने से शरीर पतला होगा।

ग्रहों के वर्ण 

बृहस्पति और शुक्र ब्राह्मण वर्ण के हैं, सूर्य और मंगल का वर्ण क्षत्रिय है तथा चंद्रमा और बुध वैश्य वर्ण के हैं। बुध चूँकि बुद्धि का कारक ग्रह  है, अतः  इसे ब्राह्मणवर्णी मानना अधिक उपयुक्त हो सकता है। किन्तु प्राचीन शास्त्रकार बुध को वैश्य वर्ण का मानते हैं। शनि शूद्रवर्णी है। राहु का अधिपत्य म्लेछों और चाण्डालों पर है और केतु अंत्यजवर्णी है। सत्त्वगुणी ग्रहों में चंद्रमा, सूर्य और गुरु आते हैं। बुध और शुक्र रजोगुणी ग्रह  हैं तथा मंगल और शनि तमोगुणी ग्रह  हैं।

चोर की जाति बताने में ग्रहों के वर्णों का उपयोग किया जाता है।

ग्रहों की अवस्था 

शास्त्रकारों ने ग्रहों कि दस अवस्थाएं मानी हैं, परन्तु किन्हीं आचार्यों ने नौ अवस्थाएं भी मानी हैं।

मूल त्रिकोण राशि में अपनी उच्च राशि का ग्रह प्रदीप्तावस्था में होता है। अपने ही ग्रहों में (स्वगृही) हो तो स्वस्थ, मित्र के गृह में हो तो मुदित, शुभ ग्रह के वर्ण में हो तो शांत, दीप्त किरणों से युक्त हो तो शक्त, ग्रहों से युद्ध में पराजित हो तो पीड़ित, शत्रुक्षेत्रीय (शत्रु राशि में) हो तो दीन, पाप ग्रह  के वर्ण में हो तो खल, अपनी नीच राशि में हो तो भीत और अस्त ग्रह को विकल कहा जाता है।

मित्र ग्रहों की राशि में स्थित ग्रहों की संज्ञा 'बाल' होती है। मूल त्रिकोण में स्थित ग्रह  की संज्ञा 'कुमार' होती है। अपनी उच्च राशि में स्थित होने से ग्रह की 'युवराज' संज्ञा होती है और शत्रु की राशि में स्थित होने पर ग्रह की संज्ञा वृद्ध मानी गई है।

ग्रह अपनी अवस्था के अनुसार ही फल प्रदान करते है। 'बालक' संज्ञा वाला ग्रह सुख देता है। 'कुमार' हो तो अच्छा आचरण प्रदान करता है। यौवनावस्था में राज्याधिकार दिलाता है और वृद्धावस्था में हो तो ऋण या रोग प्रदान करता है।

ग्रहों के रस एवं काल 

जातक की किस प्रकार के भोज्य पदार्थों में रूचि है या रहेगी, इसका ज्ञान ग्रहों के रस द्वारा किया जाता है। प्रश्नकाल में लग्नेश के तुल्य या लग्न नवांशपति के कालतुल्य समय का ज्ञान किया जाता है। जातक प्रायः प्रश्न करते हैं कि कितने समय तक मेरा अमुक कार्य हो जायेगा या अमुक रोगी कब ठीक होगा? ग्रहों के काल का उपयोग ऐसा विचार करने में किया जाता है। दैवज्ञ को चाहिए की लग्नाधिपति और नवांशपति के सम कालतुल्य और देश, काल एवं परिस्थिति का विचार कर समय का निर्धारण करें।

चंद्रमा, सूर्य, शनि, गुरु, मंगल, शुक्र और बुध क्रम से नमकीन, कटु, कषाय, मधुर, तिक्त, खट्टा और मिश्रित रसों के स्वामी हैं।

अयन का स्वामी सूर्य, वर्ष का शनि, ऋतु का बुध, मास का गुरु, पक्ष का शुक्र, दिन का मंगल और घटी का अधिपति चंद्रमा होता है।

मंगल युवा है, बुध बाल है, चंद्रमा और शुक्र प्रौढ़ है तथा शनि, गुरु और सूर्य वृद्ध हैं।

ग्रहों के सम्बन्ध 

ग्रहों के चार प्रकार के सम्बन्ध माने जाते हैं। किन्हीं आचार्यों ने पांच प्रकार के सम्बन्ध भी कहे हैं।
  1. दो ग्रहों में परस्पर राशि-परिवर्तन का योग हो-अर्थात् 'क' ग्रह  'ख' ग्रह की राशि में बैठा हो और 'ख' ग्रह 'क' ग्रह की राशि में बैठा हो-तो यह अति उत्तम सम्बन्ध होता है। 
  2. जब दो ग्रह परस्पर एक-दूसरे को देख रहे हों अर्थात् 'क' ग्रह 'ख' ग्रह को देख रहा हो और 'ख' ग्रह 'क' ग्रह को तो यह मध्यम सम्बन्ध माना जाता है। 
  3. दोनों ग्रहों में से एक ग्रह दूसरे ग्रह की राशि में बैठा हो और दोनों में से एक दूसरे ग्रह को देखता हो तो यह तीसरा सम्बन्ध माना जाता है। 
  4. जब दोनों ग्रह एक ही राशि में संयुक्त होकर बैठें हों तो यह चौथे प्रकार का सम्बन्ध होता है। इस प्रकार के सम्बन्ध को अधम माना जाता है। 
  5. जब दो ग्रह एक-दूसरे से त्रिकोण (पांचवे-नवें) स्थान पर स्थित हों तो यह मतान्तर से पांचवां सम्बन्ध होता है। 
भावों के स्थिर कारक ग्रह 

सूर्य लग्न, धर्म और कर्म भाव का, चंद्रमा सुख भाव का, मंगल सहज और शत्रु भाव का, बुध सुख और कर्म भाव का, गुरु धन, पुत्र, कर्म और आय भाव का, शुक्र स्त्री भाव का तथा शनि शत्रु, मृत्यु, कर्म और व्यय भाव के कारक ग्रह  हैं। 

आत्मादि चर कारक ग्रह 

सूर्यादि नौ ग्रहों में ग्रह स्पष्ट तुल्य अंशों में अधिक हो अर्थात् अंश वाला हो, वह आत्मकारक, उससे कम अंशों वाला ग्रह अमात्यकारक, उससे कम अंशों वाला ग्रह भ्रातृकारक, उससे कम अंशों वाला मातृकारक, उससे कम अंशों वाला पितृकारक, उससे कम अंशों वाला पुत्रकारक, उससे कम अंशों वाला पितृकारक, उससे कम अंशों वाला पुत्रकारक, उससे कम अंशों वाला जातिकारक तथा उससे भी कम अंशों वाला स्त्रीकारक कहा गया है।